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भारत में कृषि क्षेत्र में परिवर्तन के लिए जलवायु परिवर्तन से निपटना

यूएनएफसीसीसी के पक्षों के सम्मेलन (कॉप 26) के 26वें सत्र में जलवायु परिवर्तन तथा हम इसके प्रभाव को कैसे कम कर सकते हैं, इन विषयों पर कई चर्चाएं की गईं. न्यूनतम विकसित देशों के परिप्रेक्ष्य में इस साल की शुरुआत में जारी किए गए एक पेपर में उन देशों की आवश्यकताओं का उल्लेख किया गया है जिन पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा खतरा है, और इसमें कहा गया है कि कॉप 26 इन खतरों के प्रति सबसे संवेदनशील देशों की मदद किए बिना सफल नहीं हो सकता है।

जलवायु और मौसम की स्थितियों पर अधिक निर्भरता के कारण कृषि सबसे असुरक्षित क्षेत्रों में से एक है. भारत विश्व के सबसे बड़े खाद्य उत्पादकों में से एक है, जिसकी 1.3 बिलियन जनसंख्या का लगभग 68% भाग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. हालांकि जीडीपी में कृषि का योगदान 1950 के दशक में 51% से वर्तमान में 16% तक कम हो गया है, लेकिन कृषि पर निर्भर घरों की संख्या 1951 में 70 मिलियन से बढ़कर 2020 में 120 मिलियन हो गई है. कृषि पर यह भारी निर्भरता भारत को जलवायु परिवर्तन के लिए अधिक संवेदनशील बनाती है. 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार - देश में मौसम की खराब स्थितियों के कारण वार्षिक रूप से यूएसडी 9-10 बिलियन का नुकसान होता है. यह देश में खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के लिए एक प्रमुख चुनौती है।

जलवायु परिवर्तन में वृद्धि करने वाली प्रमुख चुनौतियां

यद्यपि कृषि पर निर्भरता बढ़ी है, पर कृषि योग्य भूमि आकार के साथ-साथ गुणवत्ता में भी घट रही है, भूमि जोत का औसत आकार 1.08 हेक्टेयर तक कम हो गया है. कृषि योग्य भूमि को छोटे टुकड़ों में विभाजित करने के साथ-साथ उपेक्षित मृदा प्रबंधन से भूमि के क्षरण की दर बढ़ रही है. इसके अलावा, सीएसई के अनुसार, भारत में भूमि का 30% हिस्सा वर्तमान में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है।

2019 में, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि "हरितगृह गैसों के उत्सर्जन और कार्बन ग्रहण करने की कम दर के साथ भूमि अवक्रमण जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारणों में से एक है". यह एक विशिष्ट चक्र है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के सामाजिक आर्थिक प्रभाव भूमि अवक्रमण में तेजी लाते हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण अप्रत्याशित मौसम और प्राकृतिक संकट भी उत्पन्न हुए हैं जिनमें सूखा, महामारी, चक्रवात, भारी बारिश या बाढ़ आदि शामिल हैं. आर्द्रता, तापमान और वर्षा की अनिश्चितता में वृद्धि से पारंपरिक कृषि कैलेंडर प्रभावित होता है और उसे कठिन मौसम की मार झेलनी पड़ती है

सिंचाई में पानी का उपयोग बढ़ने से भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में लगातार कमी हो रही है, जो कि पिछले 50 वर्षों में 60% तक कम हो चुकी है, जिससे भूमि अवक्रमण बढ़ रहा है. इसके अलावा, दुनियाभर में चावल और गन्ने जैसी अधिक पानी की आवश्यकता वाली फसलों के प्रमुख निर्यातकों में से एक होने के नाते, हम कृषि निर्यात के साथ-साथ एक तरह से पानी (आभासी पानी) का भी निर्यात करते हैं. यह कमी न केवल जलवायु परिवर्तन को तेज करती है, बल्कि परिणामी विकास चक्रों में उत्पादकता को भी कम करती है

अनुमानों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन कृषि उत्पादन को प्रति वर्ष लगभग 4-9% तक प्रतिकूलता से प्रभावित करता है, जिससे जीडीपी में लगभग 1.5% की वार्षिक हानि होती है. कृषि उत्पादकता के मामले में भारत अधिकांश देशों से पीछे है. उदाहरण के लिए, मकई, चावल, मूंगफली और दालों की उत्पादकता उनके संबंधित वैश्विक औसत से क्रमशः 54%, 40%, 31%, और 33% कम है. इन सभी कारकों ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण बना दिया है - क्योंकि भारत में विश्व के कुल भू-क्षेत्र का मात्र 2.4% है जबकि यहां दुनिया की लगभग 18% आबादी रहती है. कृषि और 145 मिलियन परिवारों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के रूप में हमारे सामने एक कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है।

अवसर क्षेत्र: प्रौद्योगिकी, संधारणीयता और नीति समर्थन

भूमि अवक्रमण की भरपाई करने के लिए भारत को 2030 तक कम से कम 30 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को फिर से कृषि योग्य बनाने की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कृषि क्षेत्र को संधारणीयता के साथ अग्रणी तकनीकी समाधानों को अपनाने की आवश्यकता है और इसके लिए नीतिगत सहायता प्रदान करनी होगी.

अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियां एआई, आईओटी, मशीन लर्निंग, ब्लॉकचैन, प्रिसिजन कृषि, ड्रोन, स्मार्ट ट्रैक्टर/एग्री-बॉट, स्मार्ट वेयरहाउसिंग और ट्रांसपोर्ट ऑप्टिमाइजेशन, वास्तविक समय उपज अनुमान और मूल्यों की जानकारी सहित नई फसल सुरक्षा प्रौद्योगिकियों का उपयोग, ट्रेसेबिलिटी, वास्तविक समय दृश्यता, उच्च उत्पादकता और बेहतर गुणवत्ता को सक्षम करके इस क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा तथा कार्बन फुटप्रिंट को कम करते हुए मुनाफे में वृद्धि भी करेगा. प्रिसिजन कृषि फसलों की समग्र उत्पादकता, गुणवत्ता और उपज में सुधार के लिए इष्टतम उपयोग के माध्यम से पानी, उर्वरक और कीटनाशकों की दक्षता को अधिकतम करने के लिए डेटा विश्लेषण का उपयोग करती है. ड्रोन किसानों को मृदा और खेत की योजना बनाने, फसल की निगरानी, ​​खरपतवार, कीटों और बीमारियों से फसल की सुरक्षा, श्रम के दबाव को कम करने और उत्पादकता बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। एफएमसी जैसी अग्रणी कृषि विज्ञान कंपनियां, केवल इनपुट आपूर्तिकर्ता रहने के बजाय समाधान प्रदाता बनने के लिए ऐसी तकनीकों को अपना रही हैं. इसी तरह, दुधारू पशुओं की उत्पादकता बढ़ाना और डेयरी क्षेत्र से निकलने वाले मीथेन उत्सर्जन की समस्या पर विचार तथा इसका समाधान करना महत्वपूर्ण होगा।

संपोषणीय पद्धतियां जैसे फसल चक्र, दलहन के साथ मिश्रित खेती, जैव उर्वरकों का उपयोग, कीटनाशकों या उर्वरकों का विवेकपूर्ण उपयोग, और एकीकृत कीट प्रबंधन आदि को कृषि गतिविधियों से उत्पन्न पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्रोत्साहित करने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है. ड्रिप सिंचाई और कृषि के क्षेत्र में सौर उर्जा के उपयोग में वृद्धि की मदद से प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण किया जा सकता है. तापमान और वर्षा में उतार-चढ़ाव को झेल सकने वाली जलवायु-लचीली फसलों के विकास और वितरण के लिए निवेश की बहुत अधिक आवश्यकता है. इसके अलावा संपोषणीय कृषि पद्धतियों पर किसानों और कृषि से संबंधित अन्य लोगों के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान और क्षमता निर्माण पर ध्यान देने की आवश्यकता है। एफएमसी इंडिया सहित प्रमुख कृषि कंपनियां उत्पादन प्रक्रिया में मृदा, पानी और इनपुट प्रबंधन को बेहतर बनाने के लिए किसान समुदायों के साथ मिलकर काम कर रही हैं।

इसके अलावा,किसानों की सहायता के लिए विभिन्न स्तरों पर सरकारी समर्थन प्रदान करने की आवश्यकता है. सरकार को केवल पैदावार ही नहीं, बल्कि कुल कृषि उत्पादकता जैसे लाभकारी परिणाम देते हुए संसाधन संरक्षण को बढ़ावा देना चाहिए. सिंचाई के लिए पानी निकालने में इस्तेमाल होने वाली बिजली पर सब्सिडी देने के बजाय आज के समय की मांग है कि ड्रिप सिंचाई को अपनाया जाए और सौर पैनल लगाए जाएं. मिट्टी की उर्वरता को लौटाने वाली व कम पानी और पोषक तत्वों का इस्तेमाल करने वाली फसलों (बाजरा और दलहन) पर आकर्षक एमएसपी और इनपुट सब्सिडी की घोषणा करके उनके उत्पादन को बढ़ावा देना सही दिशा में उठाया गया एक कदम होगा. प्राकृतिक संसाधन उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली फसलों (गन्ना और धान) पर सब्सिडी प्रदान करने के निर्णय पर पुनर्विचार करना महत्वपूर्ण है. एफपीओ की एकीकरण क्षमताओं का निर्माण करने और उनका लाभ उठाने से कृषि और किसानों की संधारणीयता सुनिश्चित होगी।

निष्कर्ष

भारत, नीतिगत लक्ष्य के रूप में खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता देने वाले पहले कुछ विकासशील देशों में से एक था और हरित क्रांति के साथ ही 1970 के दशक में खाद्य अनाज के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया था. tसंपोषणीय खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए कृषि क्षेत्र में परिवर्तन की अगली लहर तकनीक और नवाचार लेकर आएंगे. किसानों के लिए संपोषणीय पद्धतियों को अपनाने के लिए उपयुक्त कृषि-सुधार करने और प्रोत्साहन प्रणाली बनाने के साथ-साथ ऐसे संगठनों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है जो संपोषणीय समाधानों के माध्यम से प्रभाव पैदा कर सकते हैं, उपभोक्ताओं और किसानों को शिक्षित कर सकते हैं और कृषि को जीवन निर्वाह कृषि से मांग-आधारित कृषि में बदल सकते हैं।